हम में से बहुत लोगों ने कहीं न कहीं कभी न कभी एक डायलॉग जरूर सुना होगा कि ” तुम कहीं के गामा हो क्या ” तब शायद न तो कहने वाले को पता रहा होगा कि उसने “गामा” क्यों कहा और न ही सुनने वाले को। दो दशक पहले के समय में इंटरनेट की इतनी आजादी नहीं थी कि किसी भी चीज को आज की तरह गूगल बाबा से पूछ लेते ।
“तुम कहीं के गामा हो क्या” कहे जाने के पीछे दरअसल एक कहानी है । आज हम उस कहानी के प्रणोता गुलाम मोहम्मद बक्श बट्ट उर्फ़ गामा पहलवान Gama pahalwan kaun the, Gama ki kahani के बारे में बात करने वाले है।
जन्म स्थान और शुरुआती जीवन – गामा पहलवान का जीवन परिचय gama pahalwan ki jiwani
गुलाम मोहम्मद बक्श बट्ट का जन्म पंजाब क्षेत्र के अमृतसर में 22 मई 1878 ई० को एक खानदानी पहलवानो के कश्मीरी मुस्लिम परिवार में हुआ था। वैसे इनका परिवार पहले कश्मीरी पंडित था लेजिन बाद में कश्मीर में मुस्लिम रूल के तहत इस्लाम को अपना लिया था। 6 वर्ष की उम्र में इनके पिता का निधन हो गया था। इसके बाद इनकी देखरेख इनके नाना और चाचा ने किया था ।
पहली बार ताकत और साहस का प्रदर्शन
1988 में 10 साल की उम्र में पहली बार लोगों का ध्यान उनकी तरफ गया जब जोधपुर में आयोजित 400 से अधिक शक्तिशाली और मजबूत लोगो की एक स्पर्धा में अंतिम 15 में अपना स्थान बनाया था। ये उस समय की एक नॉकऑउट स्पर्धा थी मतलब जो भी बल आज़माइश का टास्क मिले सब पूरा करना होता है एक भी नहीं पूरा कर पाए तो बाहर। बाद में जोधपुर के राजा ने इनकी छोटी उम्र को देखते हुए इन्हे विजेता घोषित किया था। इसके बाद दतिया के महाराजा ने इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की ।
अभ्यास और खानपान – गामा पहलवान की डाइट या खुराक
कहा जाता है की अखाड़े में वे अपने 40 साथियों के साथ प्रैक्टिस किया करते थे । एक बार में 5000 उठक बैठक (उठक बैठक वही जिसे हम आजकल स्कवैट्स कहते हैं ) और 3000 दंड (जिसे आज कल हम पुश अप्स कहते है ) किया करते थे वो भी बहुत ही तेज गति के साथ मतलब प्रति मिनट 100 से ज्यादा उठक बैठक और लगभग इतने ही दंड।
अब इतनी जाता वर्जिश के लिए बहुत बड़ी और पौष्टिक खुराक भी चाहिए। कहा जाता है कि उनके एक दिन की सभी प्रकार की खाने और पीने की वस्तुओं का वजन लगभग 20 किलोग्राम के आसपास होता था। इसमें मुख्य रूप से चिकन, रोटी, दूध, मठ्ठा, मक्खन, फल के सलाद, समोसे, पकौड़े, और विभिन्न प्रकार के फलों के जूस आदि शामिल होते थे । साथ ही इन सबको पचाने के लिए और अपने पाचन तंत्र को चुस्त और दुरुस्त रखने के लिए पाचन चूर्ण का सेवन भी करते थे ।
बहुत सारी शारीरिक खूबियों के साथ गामा की एक शारीरिक कमी थी और वह थी उनकी लम्बाई। उनकी लम्बाई 5 फुट 7 इंच के आसपास थी जो कुश्ती और पहलवानी के लिहाज से कम मानी जाती थी। लेकिन गामा ने अपनी वीरता से इसे मिथ्या साबित किया ।
पहला बड़ा मुकाबला – गामा पहलवान की ताकत
16 साल के होते होते गामा ने अपने आसपास के कई पहलवानों को चित किया लेकिन अब बारी थी किसी बड़े मुकाबले की । और फिर आया 1895 का वह दिन जब गामा का मुकाबला उस समय के कुश्ती चैंपियन रहीम बक्श सुल्तानीवाला के साथ होने वाला था। यह कहा जा रहा था की रहीम बक्श आसानी से गामा को धूल चटा देंगे क्योंकि गामा की तुलना में रहीम बक्श को अपनी लम्बाई (लगभग 7 फुट ) का फायदा मिलने का अनुमान लगाया जा रहा था।
गामा और सुल्तानीवाला मुकाबला ( गामा बाईं ओर ) |
फिर शुरू हुआ वह महामुकबला। कई घंटो तक चला मुकबला समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा था क्योंकि दोनों में से कोई खुद को हारता हुआ मानने को तैयार नहीं था और अंततः यह मुकाबला बराबरी पर छूटा मतलब की ड्रा रहा । इस मुकाबले का गामा की पहलवानी में बहुत बड़ा रोल था ।
इस मुकाबले के बाद गामा की ख्याति और बढ़ने लगी। 1895 से लेकर 1910 तक गामा ने उस समय के तमाम पहलवानों जैसे कि भोपाल के प्रताब सिंह, दतिया के गुलाम मोहिउद्दीन, इंदौर के अली बाबा सेन और मुल्तान के हसन बक्श जैसे नामी पहलवानों को लगातार हराया शिवाय रहीम बक्श सुल्तानीवाला के। क्योकि १९१० में गामा और सुल्तानीवाला के बीच हुआ दूसरा मुकाबला भी ड्रा हो गया था।
जॉन बुल चैम्पियनशिप के लिए लंदन में खुला चैलेंज
अब गामा भारत के बाहर अपना वर्चस्व दिखाने के लिए ध्यान केंद्रित करने लगे और अपने भाई गुलाम बक्श के साथ पश्चिमी पहलवानों के साथ कुश्ती के लिए इंग्लैंड रवाना हो गए। लेकिन अपनी कम लंम्बाई के कारण इनको उस टूर्नामेंट में आसानी से प्रवेश नहीं मिला।
अब आयी बारी उस चैलेंज की जिसे गामा ने उस टूर्नामेंट में प्रवेश पाने के लिए दिया। गामा ने चैलेंज दिया कि वह किसी भी किलोग्राम वर्ग के तीन पहलवानों को आधे घंटे में अखाड़े से बाहर फेंक सकता है। चूँकि उस समय तक गामा ने कोई अंतराष्ट्रीय कुश्ती नहीं खेली थी इसलिए उनके चैलेंज को पहलवानों ने काफी समय तक सीरियसली नहीं लिया मतलब की ध्यान ही नहीं दिया।
अब गामा ने दूसरा चैलेंज दिया और इस बार हैवीवेट वर्ग के पहलवानों स्टैनिसलॉस जबिश्को और फ्रैंक गॉच को उनके नाम से चुनौती दे दी। इस बार के चैलेंज ने थोड़ा बहुत काम किया और गामा के चैलेंज को एक प्रोफेशनल पहलवान बेंजामिन रोलर ने स्वीकार किया। बस क्या था गामा को यही तो चाहिए था ।
कुश्ती शुरू हुई और गामा ने 2 मिनट से भी कम समय में बेंजामिन रोलर को पटकनी दे दी। और उसी दिन खेले गए दूसरे मुकाबले में भी 10 मिनट में रोलर को धूल चटा दिया। गामा की इस जीत से बाकी पहलवान तिलमिला गए और अगले दिन 12 पहलवानों ने चुनौती स्वीकारते हुए गामा के साथ कुश्ती लड़ी और सबका हाल वही हुआ जो बेंजामिन रोलर का हुआ था। और इस प्रकार गामा को आधिकारिक रूप से उस टूर्नामेंट में प्रवेश मिला।
आखिरकार गामा और उस समय के विश्व के जाने माने पहलवान स्टैनिसलॉस जबिश्को के बीच मुकाबले की घड़ी आ ही गयी। 10 सितंबर 1890 को जॉन बुल विश्व चैंपियनशिप के फ़ाइनल में गामा और स्टैनिसलॉस जबिश्को के बीच मुकाबला शुरू ही हुआ था कि स्टैनिसलॉस जबिश्को एक मिनट से भी कम समय में फर्श पर आ गए और मैच के बचे हुए 2 घंटे 35 मिनट तक वो उसी पोजीशन में रहे। बीच बीच में वह खड़े होते लेकिन देखते ही देखते फिर से उसी पोजीशन में पहुँचा दिए जाते। लगभग 3 घंटे तक चले इस मुकाबले में किसी के पक्ष में निर्णय नहीं किया जा सका और मुकाबले को ड्रॉ घोषित कर दिया गया। इस निर्णय से नाखुश दिख रहे गामा इससे संतुष्ट नहीं होने वाले थे और फिर इन दोनों के बीच दूसरा मुकाबला 10 सितंबर 1890 को निर्धारित किया गया। लेकिन इस बार स्टैनिसलॉस जबिश्को आये ही नहीं और गामा को नियमतः विजयी घोषित किया गया। उन्हें जॉन बुल बेल्ट और इनामी राशि प्रदान की गयी। और इस तरह उन्हें रुस्तम-ए-ज़माना और विश्व विजेता कहा गया।
इंग्लैंड में ही गामा अमेरिका और यूरोप के पहलवानों से लड़े। और यहाँ पर उन्होंने उस समय के कई सम्मानित पहलवानों को धुल चटाई। गामा की लड़ने और जीतने की भूख यही नहीं रुकी उन्होंने विभिन्न देशों के जूडो चैम्पियनों को भी चुनौती दे डाली। यही नहीं उन्होंने यहाँ तक चैलेंज किया कि वह एक के बाद एक लगातार 20 अंग्रेज पहलवानों को हरा सकते हैं लेकिन किसी ने उनके आग्रह को स्वीकार नहीं किया।
रहीम बक्श सुल्तानीवाला से तीसरा मुकाबला
इंडिया वापस आने के बाद गामा का एक बार फिर रहीम बक्श सुल्तानीवाला से मुकाबला तय किया गया। इलाहाबाद में इन दोनों के बीच काफी देर तक चले इस अंतिम मुकाबले में अंततः गामा की जीत हुई। इसका एक कारण ये भी माना जा सकता है कि अब रहीम बक्श कि उम्र ढल चुकी थी। जीत के बावजूद गामा ने रहीम बक्श को अपने जीवन का सबसे तगड़ा प्रतिद्वंदी माना था। इस जीत के साथ ही गामा को रुस्तम-ए-हिन्द की उपाधि दी गयी ।
1922 में प्रिंस ऑफ़ वेल्स (यूनाइटेड किंगडम के राजा ) ने गामा को चांदी की गदा भेंट की थी ।
स्टैनिसलॉस जबिश्को के साथ भारत में मुकाबला
1927 में घोषणा कि गयी कि स्टैनिसलॉस जबिश्को और गामा एक बार फिर आमने सामने होंगे । इस बार स्टैनिसलॉस जबिश्को ज्यादा चुस्त दुरुस्त लग रहे थे जबकि गामा थोड़े से ढीले। लेकिन इस बार वो हुआ जो इंग्लैंड में नहीं हो पाया था। एक मिनट के अंदर स्टैनिसलॉस जबिश्को चित हो गये थे और उन्होंने मैच के बाद गामा को “टाइगर ” कहा था।
Gama pahalwan aur Balram Heeraman singh yadav
अब आयी बारी गामा के अंतिम मुकाबले की। 1940 में गामा को हैदराबाद के निज़ाम ने आमंत्रित किया। यहाँ पर गामा ने निज़ाम के पहलवानों को भी धुल चटाया शिवाय एक नाम बलराम हीरामन सिंह यादव के। बलराम हीरामन सिंह यादव को भी भारत में अजेय माना जाता था। बहुत लम्बे चले इस मुकाबले को कोई हारने को तैयार नहीं था और ये मुकाबला ड्रा पर छूटा।
अपनी पूरी जिंदगी में जो कभी हारे नहीं जिन्होंने लोगो को चुनौती देकर हराया वो गामा ही थे। इसीलिए जब कही पर कोई ताकत से भरी चुनौती या जबर्दस्ती वाली बात करता है तो बड़े बुजुर्ग कहते है कि तुम गामा हुए हो क्या।
भारत के बंटवारे के समय गामा पाकिस्तान चले गए। कहा जाता है कि उस समय हुए दंगो में गामा ने सैकङों लोगों को दंगाईयों से बचाया था।
अंतिम दिनों में वो बीमार रहने लगे। कहा जाता है कि G.D. बिरला ने उनकी बीमारी के दिनों में काफी मदद की थी। लम्बी बीमारी के बाद 23 मई 1960 में उनकी मृत्यु हो गयी थी।