भारतीय सिनेमा का विकास : Bhartiye cinema ka vikas के 6 मुख्य बिन्दु

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भारतीय  सिनेमा के अन्तर्गत भारतवर्ष में निर्मित सभी फिल्में आती हैं चाहे वो किसी  भी भाषा में हो।  सिनेमा भारत में बेहद लोकप्रिय है, हर साल विभिन्न भाषाओं में लगभग 1800-2000 से अधिक फिल्मों का निर्माण किया जाता है। भारतीय सिनेमा किसी भी अन्य देश की तुलना में ज्यादा फिल्मों का निर्माण करता है जिसे दुनिया के किसी अन्य देश की तुलना में  ज्यादातर   लोगों  द्वारा देखी जाती है;  आकड़ों के अनुसार 2018 में, पूरे भारत में लगभग 4 बिलियन टिकट बेचे गए। विभिन्न भाषाओं के अनुसार  मुंबई, हैदराबाद, कोलकाता, चेन्नई, कोच्चि और बैंगलोर भारत में फिल्म निर्माण के प्रमुख केंद्र हैं।
आज के इस आर्टिकल मे हम bhartiye cinema ka vikas , bhartiye  cinema ka  itihas, भारतीय सिनेमा का विकास कैसे हुआ? भारतीय सिनेमा कब शुरू हुआ, भारतीय सिनेमा से आप क्या समझते हैं, भारतीय सिनेमा के जनक कौन माने जाते हैं आदि सवालों के जवाब देंगे | आशा करते हैं ये आर्टिकल आपको पसंद आएगा |

निर्विवाद पहली भारतीय फिल्म : Bhartiye cinema ka vikas का प्रथम चरण 

राजा हरिश्चंद्र फिल्म  का एक दृश्यImage credit – Open web source
1913 में दादा साहब फाल्के ने भारतीय महाकाव्यों को आधार मानकर मराठी भाषा में पहली फिल्म बनाई। इस फिल्म का नाम “राजा हरिश्चंद्र ” था। ये एक मूक फिल्म ( मतलब जिसमें संवाद को सुना न जा सके) थी। साथ ही इस फिल्म में महिला किरदारों को भी पुरुषों ने ही निभाया था। चूंकि ये भारतीय इतिहास की पहली फिल्म थी इसलिए इसकी सिर्फ एक ही प्रिन्ट बनाई गई थी। ‘कोरोनेशन सिनेमेटोग्राफ’ में फिल्म को 3 मार्च  1913 को प्रदर्शित किया गया। फिल्म ने अच्छी खासी कमाई की और ये फिल्म भारतीय सिनेमा इतिहास के लिए मील का पत्थर साबित हुई। इस फिल्म की सफलता से अन्य फिल्मों के निर्माण को बल मिला। 
3 साल बाद 1916 में  रंगास्वामी नटराज मुदालियर ने तमिल भाषा में “कीचक वधम” का निर्माण मूक भाषा में किया। इन्होंने ही दक्षिण भारत में पहले फिल्म स्टूडियो की स्थापना की थी

Dada Shaheb Falke



1917 में कोलकाता में  जमशेदजी फ्रामजी मदन ने राजा हरिश्चंद्र का रीमेक ‘सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का निर्माण किया था। ये भी एक मूक फिल्म थी।  
रघुपति वेंकैया नायडू ने मद्रास में पहले सिनेमा हाल का निर्माण कराया था। इन्हे तेलगु फिल्मों का पितामह कहा जाता है। 
1917 के बाद  युवा निर्माताओं ने सिनेमा में भारतीय सामाजिक जीवन और सभ्यता को समाहित करना शुरू किया। अन्य लोगों ने विश्व के अन्य देशों के अपने विचार  रखने शुरू किए। बहुत जल्द ही वैश्विक बाजार और दर्शक भारतीय सिनेमा से रूबरू होने लगे। 
 

संवाद बोलती फिल्मों की शुरुआत: Bhartiye cinema ka vikas का द्वितीय चरण 

 
“आलम आरा” को भारतीय इतिहास की पहली बोलती हुई फिल्म होने का गौरव प्राप्त है। इसे आर्देशिर ईरानी ने 14 मार्च 1931 को प्रदर्शित किया था। बाद में ईरानी ने साउथ की फिल्म “ कालिदास” को भी प्रोड्यूस किया था। जिसे एच. एम. रेड्डी ने निर्देशित किया था।  ये भी एक बोलती हुई फिल्म थी जो 31 अक्टूबर 1931 को प्रदर्शित की गई थी। चित्तोर वी. नागया को पहला बहुभाषी फिल्म निर्देशक, अभिनेता, गायक, संगीतकार माना  जाता है।

बॉलीवुड नामकरण   

1932 में बंगाली फिल्मों के लिए “टॉलीवुड” का प्रयोग किया गया। ये हॉलिवुड से प्रेरित नाम था। तब टोलीगंज भारतीय सिनेमा का केंद्र बिन्दु था इसीलिए इसे  “टॉलीवुड” कहा जाने लगा। बाद में बॉम्बे ने टॉलीवुड का स्थान ले लिया और इसे बॉलीवुड कहा जाने लगा। 
 
1933 में कोलकाता में ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी ने अपनी पहली तेलगु फिल्म “सावित्री” बनाई। म्यलवरम बाल भारती समाजम नामक नाटक पर आधारित इस फिल्म में  अभिनेता वेमुरी गगइया और दसारी रामाथिलकम थे। इसे सी. पुलाइयाह ने निर्देशित किया था। इस फिल्म को दूसरे वेनिस फिल्म फेस्टिवल में सम्मानित किया गया था। 

एडीसन का ग्रांड सिनेमा मेगाफोन 

स्वामिकन्नू विंसेंट जिन्होंने साउथ में कोयम्बटूर में पहला सिनेमा बनाया था उन्होंने “ टेंट सिनेमा” का आरंभ किया जिसमें किसी गाँव या शहर की खाली जगह पर एक टेंट के नीचे सिनेमा को दिखाया जाता था। इस तरह का पहला उपयोग मद्रास में किया गया था जिसे “एडीसन का ग्रांड सिनेमा मेगाफोन” कहा गया। 
 
1934 में बॉम्बे टाकीज और पुणे में प्रभात स्टूडियो शुरू हुआ। 
1936 में बनी फिल्म “अछूत कन्या” हिन्दी सिनेमा की शुरुआती बोलती फिल्मों में थी। 
1936 में बनी “संत तुकाराम” फिल्म को 1937 के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के वेनिस फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। वेनिस फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जाने वाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। इस फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उस साल की तीन बेस्ट फिल्मों में स्थान मिला।  
 
1938 में जमीनी हकीकत को बयान करती बनाई गई फिल्म “रायथू बिड्डा” को ब्रिटिश सरकार द्वारा बैन कर दिया गया था। इसमें किसानों और जमीदारों के बीच विवादित विषयों को दिखाया गया था।   
 
1940 के आसपास भारत में मसाला फिल्मों का उदय हुआ। मसाला फिल्में वे थीं जिसमें गाने, डांस एक्शन, रोमांस और कॉमेडी आदि का मिश्रण होता था।   
 

इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा)

कम्युनिस्ट झुकाव वाले एक कला आंदोलन इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) का 1940 और 1950 के दशक में उदय हुआ। इप्टा के कई यथार्थवादी नाटकों जैसे 1944 में  बीजू भट्टाचार्य’ का नबन्ना  (1943 के बंगाल के अकाल पर आधारित), ने भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद को बढ़ावा दिया। इसका जीता जागता उदाहरण ख़्वाजा अहमद अब्बास की “धरती के लाल” (1946) है। इप्टा प्रेरित आंदोलन लगातार सच्चाई और वास्तविकता पर ज़ोर देता रहा जिसके फलस्वरूप “मदर इंडिया” और “प्यासा”  जैसी भारत की सबसे अधिक पहचानी जाने वाली फिल्मों का निर्माण हुआ।

फिल्म उद्योग को सरकारी सहायता: Bhartiye cinema ka vikas का पंख 

भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात एस. के. पाटील कॉमेटी द्वारा फिल्म इंडस्ट्री के विकास के लिए जांच पड़ताल की गई। पाटील ने अपने सुझाओं में वित्त मंत्रालय के अंतर्गत “एक फिल्म वित्त संस्थान” की स्थापना की बात रखी। 1960 में इसे स्वीकार किया गया। इसके तहत प्रतिभाशाली फिल्मकारो की आर्थिक मदद के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। जिससे Bhartiye cinema ka vikas होने के लिए इसमे पंख लगने जैसा था |
 

भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम काल 1940 के अंत से 1960 तक 

1940 के दशक के अंत में यथार्थवादी फिल्मों के बनाने का आंदोलन जोर पकड़ रहा था। जैसे कि  शुरुआत में 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास की  “धरती के लाल” 1946 में ही चेतन आनंद की “नीचा नगर” 1952 में ऋत्विक घटक की “ नागरिक” और 1953 में बिमल रॉय की “दो बीघा जमीन” ने नव यथार्थवादी फिल्मों की नींव रखी थी। 1955-1959 के दौरान सत्यजीत रे की  “अपु त्रिलोगी” ने अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय अवॉर्ड जीते। “पाथेर पांचाली” जोकि अपु त्रिलोगी का प्रथम भाग था ने सत्यजीत रे के लिए  भारतीय सिनेमा मे प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया। 

सत्यजीत रे,  सोर्स- Open web
1940 में दिलीप कुमार ने फिल्मों की दुनिया में कदम रखा और 1950 में सफलता उनके हाथ लगी। दिलीप कुमार बड़े फिल्मी सितारों मे से थे। 

सायरा बानो और दिलीप कुमार  Source- Open web
1950 से 1970 का दौर शमी कपूर के रूप में भी हिन्दी सिनेमा को अपना मुख्य कलाकार मिला। 

इन सब के साथ ही अब व्यावसायिक हिन्दी फिल्मों ने भी सफलता  पानी शुरू कर दी थी। इस समय की कामयाब फिल्मों में 1951 में आवारा ,1955 में राज कपूर की “श्री 420”,  1957 में गुरुदत्त की “प्यासा” और 1959 में “कागज के फूल” आदि मुख्य थीं। 

ऑस्कर पुरस्कारों में प्रवेश

1957 में महबूब खान की फिल्म “मदर इंडिया” ने वैश्विक रूप से सफलता हासिल की और “अकादमी अवार्ड्स ” में नामित होने वाली पहली भारतीय फिल्म बनी।
 (1957)  में आयी  वी. शांताराम ‘ की दो आँखें बारह हाथ  और 1960 में आयी  के. आसिफ’ की “ मुग़ल-ए-आज़म”  ने भी अच्छा नाम कमाया। बिमल रॉय द्वारा निर्देशित और ऋत्विक घटक द्वारा लिखित मधुमती (1958) ने पुनर्जन्म के विषय को लोकप्रिय पश्चिम संस्कृति में बढ़ावा दिया. 
स्वर्ण काल में बनी कई फिल्मों को सर्वकालिक श्रेष्ठ फिल्म माना जाता है। 

धर्मेंद्र का आगमन

1960 में आयी फिल्म “दिल भी तेरा हम भी तेरे” से धर्मेन्द्र ने फिल्मी दुनिया में अपना कदम रखा। Bhartiye cinema ke vikas मे इनका भी बहुतहम रोल रहा है|
सूरत और सीरत (1962), बंदिनी (1963), दिल ने फिर याद किया (1966)  दुल्हन एक रात की (1967) , अनपढ़ (1962), पूजा के फूल (1964, आँखें  (एक बहुत बड़ी हिट), बहारें फ़िर भी आयेंगी, आकाशदीप , शादी  और आयी मिलन की बेला (1964) में आदि धर्मेन्द्र की शुरुआती फिल्में थीं । धर्मेंद्र ने मीना कुमारी के साथ एक सफल जोड़ी बनाई और 7 फ़िल्मों में स्क्रीन शेयर की, जिनमें मुख्य हैं लद्दाखी (1964), काजल (1965), पूर्णिमा (1965), फूल और पत्थर (1966, मझली दीदी (1967), चंदन का पलना (1967) और बहारों की मंजिल (1968)। फूल और पत्थर (1966) में उनकी एकल नायक भूमिका थी, जो उनकी पहली एक्शन फिल्म थी।

राजेश खन्ना का आगमन

1966 में “आखिरी खत” से राजेश खन्ना ने बॉलीवुड में अपना कदम रखा। ये फिल्म आधिकारिक रूप से “आस्कर” में नामित होने वाली पहली भारतीय  फिल्म थी। 
 
राजेश खन्ना की शुरुआती फिल्में  थीं आराधना, डोली, बंधन, इत्तेफाक, दो रास्ते , खामोशी, सफर, द ट्रेन, कटि पतंग, सच्चा झूठा, आन मिलो सजना, महबूब की मेहंदी, छोटी बहू, आनंद और हाथी मेरे साथी। उन्होंने लगातार 15 से जादा हिट फिल्में की थी। 
1960 से 1970 तक भी यथार्थवादी फिल्मों का ही बोलबाला था। साथ हिन्दी सिनेमा में भी कुछ बेहतरीन फिल्मों ने जैसे आराधना 1969 में  “सच्चा झूठा” 1970 में “आनंद” और “हाथी मेरे साथी” 1971 में “कटी पतंग” 1971 में  “दुश्मन” और “अमर प्रेम” 1972 में  “दाग” ने 1973 में बढ़िया नाम कमाया था।
इस दौर की मुख्य हीरोइनें सायरा बानों, मुमताज, तनुजा सामर्थ, नीतू सिंह, अरुणा ईरानी, शर्मिला टैगोर, बबीता, हेमा मालिनी आदि थीं।  

एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन का आगमन

1969 में बनी फिल्म “सात हिन्दुस्तानी” से अमिताभ बच्चन  ने अपने करिअर  की शुरुआत की।  
अमिताभ की शुरुआती फिल्में बड़ी हिट नहीं थीं। उनमें  परवाना, रेशमा और शेरा, बावर्ची, आनंद, गुड्डी, बाम्बे टू गोवा और संजोग थीं। 
1970 के पहले तक हिन्दी सिनेमा संगीतमय रोमांस को पिरोये हुआ था। 1970 के आसपास ही  सलीम खान और जावेद अख्तर की जोड़ी ने  हिन्दी फिल्मों की कहानियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किए। इन्होंने फिल्मों में हिंसक, अप्रिय घटनाएँ  और मुंबई अंडर वर्ल्ड के अपराध वाली कहानियों की फिल्मों  का प्रयोग किया और उसमें सफल भी हुए। 
उनमें जंजीर और दीवार जैसी फिल्में भी शामिल थीं। इन फिल्मों में निभाए गए अपने किरदार के कारण से अमिताभ बच्चन को  “एंग्री यंग मैन” के रूप में प्रसिद्ध किया। 
1975 में आयी फिल्म “शोले” में अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र लीड रोल में थे।  1975 में ही आयी जय संतोषी माँ बहुत ही कम बजट में बनी बड़ी हिट संबित हुई। 
कहा जाता है की “दीवार” एक सच्ची कहानी पर आधरित फिल्म थी जो स्मगलरों के लीडर हाजी मस्तान पर आधरित थी। अब हिन्दी फिल्मों में भी मसाला फिल्मों का दौर शुरू होने वाला था। जिसमे एक्शन, कॉमेडी, रोमांस, ड्रामा, मेलोड्रामा और संगीत शामिल था। इसमें नसीर हुसैन का बड़ा योगदान थ।
नासिर जावेद और सलीम की तिकड़ी ने 1973 में “यादों की बारात” बनाई थी जिसे शायद पहली मसाला फिल्म होने का गौरव प्राप्त है। सलीम-जावेद ने 1970 से 1980  तक कई मसाला फिल्मों को की कहानी लिखी। 
मसाला फिल्मों ने अमिताभ बच्चन को बॉलीवुड का सबसे बड़ा फिल्म स्टार बना दिया था। 1977 में आयी “अमर अकबर एंथनी” भी अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर और विनोद खन्ना के लिए बहुत बड़ी हिट साबित हुई। 

भारतीय सिनेमा का व्यापरिक विकास

1980 के दशक में भारतीय सिनेमा का व्यापरिक विकास हुआ। इस दौर की मुख्य फिल्में 
एक दूजे के लिए (1981), हिम्मतवाला (1983), तोहफा (1984), नाम (1986), मिस्टर इंडिया (1987), और तेजाब (1988) थीं। 
1970 से 1990 तक  के दौर को क्लासिक दौर माना गया। इस दौर में अनुल कपूर, जितेंद्र, श्रीदेवी, जयाप्रदा, जया बच्चन, ऋषि कपूर, जैकी श्रॉफ, संजय दत्त, गोविंदा,  सुनील शेट्टी आदि कलाकारों ने भी हिन्दी सिनेमा के विकास में  महत्वपूर्ण योगदान दिया।

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