कैप्टन जसवंत सिंह रावत जिन्होंने 1962 में अकेले 300 चीनी सैनिकों को मार गिराया था ।

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17 नवंबर 1962 को अरुणाचल प्रदेश में भारत और चीन के बीच की चौथी और अंतिम लड़ाई में एक अकेले जावाज भारतीय सिपाड़ी ने चीन के   300 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। इस वीर सिपाही का नाम जसवंत सिंह रावत था।
जसवंत सिंह रावत का जीवन परिचय
19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड में जिला पौड़ी गढ़वाल के  बेरोखल ब्लॉक एक गाँव  में जसवंत सिंह रावत का जन्म हुआ था। बचपन से ही सेना में जाने की मंशा थी इसलिय  जैसे ही आवश्यक शिक्षा पूरी हुई तुरंत ही सेना की भर्ती में भाग लेने पहुँच गए।


इस भर्ती में वो चुने भी हए लेकिन इस समय इनकी उम्र महज 17 साल थी जोकि सेना में भर्ती होने के लिए एक साल कम थी। इसलिए उन्हे एक साल इंतजार करना पड़ा और उम्र पूरी होने पर उन्हे सेना में भर्ती किया गया।
1962 का भारत चीन युद्ध
अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करने के लिए चीन ने 17 नवंबर 1962 को अंतिम हमला किया। इस समय अरुणाचल प्रदेश सीमा पर भारतीय सेना की तैनाती नहीं थी। चीन ने इसी का फायदा उठाया और अटैक कर दिया। इस अटैक में अरुणाचल प्रदेश में काफी ज्यादा नुकसान हुआ साथ ही महिलाओं के साथ भी चीनी सेना द्वारा बुरा बर्ताव किया गया।
भारतीय सेना की गढ़वाल राइफल को जिम्मेदारी
चीन की सेना को रोकने के लिए गढ़वाल राइफल की चौथी बटालियन को जिम्मेदारी दी गई। जसवंत सिंह रावत इसी बटालियन के एक सिपाही थे। लेकिन इस बटालियन के पास चीन की सेना के मुकाबले साजो समान कम था फलस्वरूप सेना को वापस आने के लिए कहा गया।
सरकार के आदेश के बाद गढ़वाल सेना की बटालियन वापस लौट गई लेकिन जसवंत सिंह रावत के साथ उनके दो और दोस्त लांस नाइक त्रिलोक सिंह नेगी और  रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं वापस नहीं लौटे और चीन की सेना का मुकाबला करने के लिए रुके। इसमें से राइफल मैन जसवंत सिंह नूरानांग की पोस्ट पर तैनात हुए।
300 सैनिकों को आगे बढ़ने से रोकते हुए मार गिराया
नूरानांग पोस्ट पर जसवंत सिंह ने कई बंकरों में अलग अलग राइफल तैनात कर दी और बारी बारी से अलग अलग राइफल से फ़ाइरिंग करने लगे। इस तरह की फ़ाइरिंग से चीनी सैनिकों को लगा की एक पूरी पलटन से उनका मुकाबला चल रहा है जबकि वास्तव में एक ही सिपाही वीर जसवंत सिंह  थे । इस प्रकार की लड़ाई तीन दिनों तक चली और वीर जसवंत सिंह ने चीन के लगभग 300 सैनिक मार गिराए।
रसद सामाग्री की आपूर्ति –

कहा जाता है की इन तीन दिनों तक उनकी सहायता वहाँ की दो बहनों शैला और नूरा ने की थी। इन दोनों बहनों ने उन्हे खाने  का सामान और रसद की आपूर्ति की थी। इन दोनों की मदद से ही ये संभव हो पाया था कि वीर जसवंत सिंह तीन दिनों तक चीनी सेना का डटकर मुकाबला कर सके थे। उसके बाद मुखबिरी की वजह से चीनी सेना ने नूरा को पकड़ लिया तथा बाद में नूरा और शैला को चीनी सेना ने मार दिया।
और इस प्रकार जसवंत सिंह को रसद की आपूर्ति कम पड़ने लगी  जिससे वो बूरी तरह घायल हो गए। बाद में जब सिर्फ एक गोली बची तो कैदी बनाए जाने से बचने के लिए खुद को गोली मार ली ।

चीनी सेना की बर्बरता और बाद में सम्मान
जब चीनी सेना को पता चल की पिछले तीन दिनों से वो किसी बटालियन से नहीं बल्कि सिर्फ एक सैनिक से लड़ रहे थे तो वो बहुत तिलमिलाए और इसी तिलमिलाहट में चीनी सेना  वीर जसवंत सिंह का सिर कट ले गई फिर बाद में जब 20 नवंबर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा की गई तो चीनी कमांडर ने वीर जसवंत सिंह की वीरता को देखते हुए उनके सिर को वापस लौटाया साथ ही उनके सम्मान में उनकी कांसे की प्रतिमा भी प्रदान की ।   
अब भी मिलती है सैलरी और प्रमोशन
वीर जसवंत सिंह की वीरता को देखते हुए भारतीय सेना उन्हे अभी भी सैलरी प्रदान करती है जो उनके परिवार को जाती है। इसक्से साथ ही उन्हे समय समय पर प्रमोशन भी दिया जाता है। इस समय उनकी पोस्ट कैप्टन  की है
वीर जसवंत के सम्मान में स्मारक
लड़ाई के दौरान जिस जगह पर उन्होंने ने चीन सेना के छक्के छुड़ाए थे उसी जगह पर उनके नाम का एक मंदिर बनवाया गया है और इस मंदिर में चीनी  कमांडर द्वारा भेंट की गई कांसे की मूर्ति को स्थापित किया गया है।
नूरानांग में ही इनके नाम पर एक जगह भी है जसवंत गढ़। यहाँ पर एक बड़े स्मारक का निर्माण किया गया है और इस स्मारक में उनकी हर एक चीज को सम्हाल कर रखा गया है। साथ ही इनके जूते रोज पोलिश और कपड़े रोज प्रेस किए जाते है।


नूरा और शैला के बलिदान को भी भुलाया नहीं जा सकता इसलिए उनके सम्मान में  भारतीय सीमा में नूरानांग की अंतिम दो पहाड़ियों का नाम नूरा और शैला रखा गया है।

  

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